इसमें कोई दोराय नहीं है कि सोशल मीडिया बहस का क्षेत्र भी है और बहस का विषय भी। बहस का क्षेत्र इसलिए क्योंकि लोग आए दिन सोशल मीडिया पर टीका टिप्पणी की नीली चिड़िया उड़ाते रहते हैं। जहां एक ने कुछ कहा नहीं सोशल मीडिया पर हैशटैग की बरसात हो जाती है। इस बार बहस के विषय में इसलिए है कि क्या सोशल मीडिया को समाचारों के प्रसारण की पूर्ण आजादी दी जानी चाहिए या नहीं? अगर समाचारों के प्रसारण को लेकर बात हो रही है तो इसे मीडिया की अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ना गलत नहीं होगा।
आख़िर इस बात पर बहस क्यों ? क्योंकि इस लोकतंत्र में स्वतंत्रता के बाद भी ना तो किसी को पूरी आजादी मिली है और शायद ही आगे आने वाले समय में मिलेगी। यहां किसी को स्वतंत्रता भी नियंत्रण के साथ ही दी जाती है। ताकि कोई इसका दुरपयोग ना कर सके।
लोकतंत्र के शासन की बागडोर ( रस्सी) जनता के प्रतिनिधि के हाथों में है। जनता का यह प्रतिनिधि मदारी है जो जनता को जम्हुरे की भांति अपने इशारों पर नाचता है। ” यानी जम्हुरा नाच तो सकता है लेकिन उसे कमर कब मटकाना है कब उछलना है। ये मदारी ही बताता है।” वह कभी जम्हुरे को पूर्ण स्वतंत्रता नहीं देता। ठीक इसी प्रकार जब ये प्रतिनिधि चाहेगा तब जनता बोलेगी और उसके समर्थन में चिल्लाएगी। क्योंकि अगर इसे स्वतंत्रता मिल गई तो कोई उसकी बात नहीं मानेगा और ना ही कोई उसकी बड़ाई करेगा।
इस लोकतंत्र में होता भी यही है जो उस सत्ताधारी की बड़ाई नहीं करता उसे या तो लालच देकर प्रशंसा करवाई जाती है और यदि वो इसके बाद भी ना करे तो उसे इस दुनिया से ही स्वतंत्र कर दिया जाता है। जहां एक ओर इसी लोकतंत्र के संविधान में मीडिया को अनुच्छेद 19(1) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गई है वहीं दूसरी ओर कलबुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर , गोविंद पनासरे , गौरी लंकेश पत्रकारिता की दुनिया के ऐसे नाम हैं जिन्हें उनकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति के कारण अपनी जान गंवानी पड़ी। क्योंकि शायद इनकी अभिव्यक्ति सत्ताधारी के विरूद्ध थी। क्योंकि ये उसकी प्रशंसा में नहीं अपितु उनके विरोध में आवाज़ उठा रहे थे। वो कुछ ऐसा बता रहे थे जिससे इनका बना बनाया काम बिगड़ सकता था। नि:संदेह बड़े – बड़े घोटाले, भ्रष्टाचार और तस्करी के मामलों को छिपाने वाले सत्ताधारियों ने इनकी हत्या का सच भी छिपा दिया।
आज भी इन तख्तदारों को यही भय है अगर उसने मीडिया को पूर्ण स्वतंत्र कर दिया तो ये चिल्ला चिल्लाकर पूरी दुनिया को उनकी राजनीति का काला सच बता देंगे। ये भ्रष्ट राजनीति करने वाले बहुत अच्छे से जानते हैं कि जब इन पत्रकारों ने कलम के बल पर ही इनका इतना विरोध किया तो सोशल मीडिया जैसा तेज धार वाला हथियार लेकर क्या करेंगे? वो तो इनकी राजनीति का तख्त ही हिला कर रख देगें।
अगर मीडिया को स्वतंत्रता मिल भी गई तो ये सत्ताधारी उन्हें लाभ देकर या अपना ये अहसान जताकर ‘ की उन्होंने मीडिया को पूर्ण स्वतंत्र कर दिया है’ अपनी प्रशंसा का ढोल बजाने को कहेंगे। क्योंकि इनका काम ही है काम करके अहसान जताना। और मीडिया भी सत्ताधारी के अहसान तले दबकर उसकी बोली ही बोलेगी, उसके राग ही अलापेगी। ऐसी स्वतंत्रता का कोई लाभ नहीं जिसमें मीडिया अपने विचारों को ही ना रख पाए। क्योंकि मीडिया का कार्य है सच को सामने लाना। लेकिन लोकतंत्र का कटु सत्य ही यही है कि मीडिया को कितनी ही स्वतंत्र क्यों ना मिली हो लेकिन इन सत्ताधारियों के आगे सब मजबूर हैं। मीडिया भी जानता है कि जो भी स्वतंत्र होकर सच बोलने का प्रयत्न करेगा उसका भी वही हाल होगा जो कलबर्गी ,गौरी, दाभोलकर और गोविंद पनासरे का हुआ। पत्रकारिता की दुनिया में ये कोई पहली बार नहीं की जब पत्रकारों की आवाज को दबने का प्रयत्न किया गया हो। इससे पहले अपातकाल के दौरान इंदिरा सरकार ने पत्रकारों की आवाज को दबाने का प्रयास किया था।
ये सत्ताधारी कभी नहीं चाहेंगे कि उनका काला सच लोंगो के सामने आए। इसीलिए वे मीडिया की पूर्ण स्वतंत्रता का विरोध करेंगे ही। और हममें से कुछ लोग भी विरोध करेंगे क्योंकि हम मानते हैं कि मीडिया, सोशल मीडिया के द्वारा फेक न्यूज को फैलाती है। और ये काफी हद तक सही भी है।ये कार्य उन्हीं मीडिया हाउस द्वारा किया जाता है जो सरकार की चापलूसी करते हैं। और सच दिखाने की जगह झूठी खबरें फैलाते हैं। लेकिन अगर हमें सत्ताधारियों का सच जानना है तो मीडिया को स्वतंत्र करने की आवश्यकता है।
हमें यहां सत्ताधारियों से सवाल करना चाहिए की अगर वह मीडिया को स्वतंत्रता दे देते हैं तो क्या वो अपने विरूद्ध सच सुन पायेंगे? क्या वे ये वादा कर पाएंगे कि अब किसी और कलबर्गी, दाभोलकर ,गौरी लंकेश और गोविंद पनासरे की हत्या नहीं होगी? अगर वे ये वादा करते हैं तो मीडिया को स्वतंत्रता अवश्य मिलनी चाहिए। क्योंकि हम सब को ऐसी सरकार के बारे में जानने का पूरा अधिकार है जिसे हम चुनते है।
-आयुषी शाक्य
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